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Janmashtami 2022: भगवान श्रीकृष्ण के इन मुस्लिम भक्तों के बारे में कितना जानते हैं आप?

Janmashtami 2022: धर्म की आड़ में मजहब के नाम पर कट्टरता फैलाने वालों की इस देश में कमी नहीं है। तो वहीं इस देश में ऐसे भी उदाहरण हैं जो सनातन धर्म और इस्‍लाम के बंटवारे से परे खुद को भगवान कृष्‍ण की भक्ति में डुबोकर भवसागर को पार कर चुके हैं।

कृष्‍ण जन्‍माष्‍टमी (Janmashtami 2022) आने में अब कुछ ही दिन शेष हैं। भगवान कृष्‍ण के जन्‍मोत्‍सव की खुशियां मनाने की तैयारी देशभर में चल रही है। इस मौके पर आज हम बात करेंगे उन महान मुस्लिम कवियों के बारे में जिन्‍हें सारी दुनिया कृष्‍ण भक्‍त के नाम से जानती है…

सैयद इब्राहिम उर्फ रसखान

भगवान कृष्‍ण के परम भक्‍तों में से एक हैं रसखान। उनका असली नाम सैयद इब्राहिम था, मगर कृष्‍ण के प्रति उनके लगाव और उनकी रचनाओं ने उन्‍हें रसखान नाम दिया। रसखान यानी रस की खान। कहा जाता है कि रसखान ने भागवत का अनुवाद फारसी में किया था। मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं मिलि गोकुल गांव के ग्वारन, रसखान की ही देन है।

अमीर खुसरो

ग्यारहवीं शताब्दी के बाद इस्लाम भारत में तेजी से फैला। भारत में इस्लाम कृष्ण के प्रभाव से अछूता नहीं रह पाया। इसी वक्‍त चर्चा में आए अमीर खुसरो। एक बार निजामुद्दीन औलिया के सपने में कृष्‍ण आए। औलिया ने अमीर खुसरो से कृष्ण की स्तुति में कुछ लिखने को कहा तो खुसरो ने मशहूर रंग ‘छाप तिलक सब छीनी रे से मोसे नैना मिलायके’ कृष्ण को समर्पित कर दिया।

आलम शेख

आलम शेख़ रीति काल के कवि थे। उन्होंने ‘आलम केलि’, स्याम स्नेही’ और माधवानल-काम-कंदला’ नाम के ग्रंथ लिखे। ‘हिंदी साहित्य के इतिहास’ में रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं कि आलम हिंदू थे जो मुसलमान बन गए थे। उन्‍होंने कृष्‍ण की बाल लीलाओं को अपनी रचनाओं में उतारा था। उनकी प्रमुख रचना ‘पालने खेलत नंद-ललन छलन बलि,
गोद लै लै ललना करति मोद गान’ है।

उमर अली

यह बंगाल के प्राचीन श्रीकृष्‍ण भक्‍त कवियों में से एक हैं। इनकी रचनाओं में भगवान कृष्‍ण में समाए हुए राधाजी के प्रति प्रेम भाव को दर्शाया गया है। इन्‍होंने बंगाल में वैष्‍णव पदावली की रचना की है।

नशीर मामूद

यह भी बंगाल से ही आते हैं। इनका जो पद मिला है वह गौचारण लीला का वर्णन करता है। पद भाव रस से पूर्ण है। श्रीकृष्‍ण और बलराम मुरली बजाते हुए गायों के साथ खेल रहे हैं। सुदामा आदि सखागण उनके साथ हैं। इनकी रचना इस प्रकार है… धेनु संग गांठ रंगे, खेलत राम सुंदर श्‍याम।

नवाब वाजिद अली शाह

यूं तो फैजाबाद का प्रेम भगवान राम के प्रति जगजाहिर है। मगर वहां से निकले और लखनऊ आकर बसे नवाबों के आखिरी वारिस वाजिद अली शाह कृष्‍ण के दीवाने थे। 1843 में वाजिद अली शाह ने राधा-कृष्ण पर एक नाटक करवाया था। लखनऊ के इतिहास की जानकार रोजी लेवेलिन जोंस ‘द लास्ट किंग ऑफ़ इंडिया’ में लिखती हैं कि ये पहले मुसलमान राजा (नवाब) हुए जिन्होंने राधा-कृष्ण के नाटक का निर्देशन किया था। लेवेलिन बताती हैं कि वाजिद अली शाह कृष्ण के जीवन से बेहद प्रभावित थे. वाजिद के कई नामों में से एक ‘कन्हैया’ भी था।

सालबेग की मजार

जगन्‍नाथुपरी की यात्रा के दौरान रथ एक मुस्लिम संत की मजार पर रुककर ही आगे बढ़ता है। यह मुस्लिम संत थे सालबेग। सालबेग इस्लाम धर्म को मानते थे। उनकी माता हिंदू और पिता मुस्लिम थे। सालबेग मुगल सेना में भर्ती हो गए। एक बार उसके माथे पर चोट लगने के कारण बड़ा घाव हो गया। कई हकीमों और वैद्यों से इलाज के बाद भी उसका जख्म ठीक नहीं हो रहा था। तब उनकी माता ने उसे भगवान जगन्नाथजी की भक्ति करने की सलाह दी।

वह दिनोंरात ईश्‍वर की भक्ति में रमा रहता। फिर उसके सपने में स्‍वयं जगन्‍नाथजी ने आकर उसे भभूत दी। सपने में उस भभूत को माथे पर लगाते ही उसका सपना टूट जाता है। फिर वह देखता है कि उसका घाव वाकई में सही हो जाता है। फिर उसकी मृत्‍यु के बाद वहां उस स्‍थान पर उसकी मजार बनी है और हर साल यात्रा के वक्‍त जग्‍गनाथजी का रथ यहां रुकता है।