यूपी विधानसभा चुनाव 2022 के तमाम एक्जिट पोल में भाजपा-सपा के वोट शेयर में वृद्धि और बसपा-कांग्रेस के वोट शेयर में कमी होने का अनुमान लगाया जा रहा है। सामान्य तौर पर लोग समझते हैं कि वोट शेयर बढ़ने से ज्यादा सीटें आती हैं और इससे किसी पार्टी की जीत पक्की हो जाती है। लेकिन तमाम चुनावों के आंकड़े बताते हैं कि वोट शेयर और जीती गई सीटों में हमेशा एक जैसा तालमेल नहीं होता।
कई बार वोट शेयर में कमी होने के बाद भी सीटों की संख्या में वृद्धि हो जाती है, तो कभी वोट शेयर ज्यादा होने के बाद भी सीटों की संख्या कम हो जाती है। ऐसा अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों में मतदाताओं की संख्या में अंतर और किसी चुनाव में मतदान होने के प्रतिशत के अलग-अलग होने के कारण होता है।
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2017 में समाजवादी पार्टी को 21.82 फीसदी वोट मिले थे। इस वोट शेयर से सपा को 47 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। वहीं, मायावती की पार्टी बसपा ने समाजवादी पार्टी से ज्यादा लोकप्रिय वोट (22.23 फीसदी) प्राप्त किए, लेकिन इसके बाद भी उसे केवल 19 सीटों पर जीत हासिल हुई। यानी एक ही विधानसभा चुनाव में कम वोट शेयर पाने वाली पार्टी को ज्यादा सीटें और कम वोट शेयर पाने वाली पार्टी को ज्यादा सीटें प्राप्त हुईं।
आंकड़े बताते हैं कि वोट शेयर और सीटों में यह असंतुलन लोकसभा चुनावों में भी समानरूप से पाया जाता है। 2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी को 19.77 फीसदी वोट शेयर होने के बाद भी उसे कोई सीट नसीब नहीं हुई। जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव में उसे पहले से कुछ कम यानी 19.43 फीसदी वोट ही मिले, इसके बाद भी उसकी लोकसभा सीटों की संख्या बढ़कर दोगुनी यानी 10 हो गईं।
इस प्रकार वोट शेयर में कुछ कमी के बाद भी बसपा के सीटों की संख्या दोगुनी हो गई। 2014 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को 22.35 फीसदी वोट शेयर के साथ पांच सीटें मिली थीं, जबकि 2019 के चुनाव में 18.11 फीसदी वोट शेयर के साथ उसे केवल पांच सीटें मिलीं।
बिहार में भी वोट शेयर और सीटों में तालमेल नहीं
बिहार विधानसभा चुनाव में भी सीटों और वोट शेयर के बीच यह ‘मिस-मैच’ देखा जा सकता है। बिहार विधानसभा चुनाव 2015 में आरजेडी ने 18.4 फीसदी वोट शेयर के साथ 80 सीटें जीतीं, जबकि इसी चुनाव में भाजपा ने 24.40 फीसदी वोट शेयर हासिल करने के बाद भी केवल 53 सीटों पर जीत हासिल की। यानी लगभग छह प्रतिशत ज्यादा वोट शेयर हासिल करने के बाद भी भाजपा को 27 कम सीटों पर जीत हासिल हुई।
इसके अगले चुनाव यानी 2020 में आरजेडी ने 4.79 फीसदी ज्यादा वोट शेयर हासिल करने के बाद भी पिछले चुनाव से पांच सीटें कम (80 से कम होकर 75 सीटें) हासिल कीं, जबकि भाजपा का वोट शेयर 4.96 फीसदी कम होने के बाद भी उनकी 21 सीटें बढ़ गईं। इस प्रकार वोट शेयर और सीटों की संख्या में आंख मिचौली इस चुनाव में भी जारी रही।
दिल्ली में भी वही कहानी
दिल्ली विधानसभा चुनाव 2013 में भाजपा ने 33 फीसदी वोट शेयर के साथ 32 सीटों पर जीत हासिल की, लेकिन इसके बाद अगले ही विधानसभा चुनाव में लगभग उतने ही वोट शेयर (32.3 फीसदी) के बाद भी भाजपा को केवल तीन सीटें मिलीं। इस चुनाव में कांग्रेस के वोट खिसककर आम आदमी पार्टी की ओर चले जाने के कारण यह स्थिति बनी। आम आदमी पार्टी को 2013 में 29.5 फीसदी वोट शेयर के साथ 28 सीटें मिली थीं, जबकि 2015 में 54.3 फीसदी वोटों के साथ 67 सीटें हासिल हुईं। इसी प्रकार वोटों और सीटों में मिस-मैच अन्य राज्यों में भी देखा जा सकता है।
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